
प्रवीण कुमार
Ranchi : हमारे गांव में हमारा राज, झारखंड के गांवों में यह नारा न केवल लोकप्रिय है, बल्कि झारखंडियों की राजनीति का एक हिस्सा भी है. ज्यादातर पार्टियां इस नारे को उपहास में लेती हैं, लेकिन हाल के वर्षो में राज्य के कई जिलों में ग्रामसभा को लेकर आंदोलन जोरों पर है. पेसा कानून के साथ-साथ पत्थलगड़ी को लेकर आंदोलन चल रहा है, जिसे खूंटी के जिला प्रशासन ने गलत करार दिया है. आने वाले 2019 के चुनाव में ग्रामसभा को कुछ राजनीतिक समूह अपने वोट बैंक के नजरिए से भी देख रहे हैं. झारखंड में 17 साल से पंचायतों द्वारा विकास योजनाओं को संचालित किया जा रहा है. इसमें करोड़ो रुपये का गबन और घोटाला सामाजिक अंकेक्षण में समाने आ रहा है. मुखिया से लेकर बीडीओ और डीडीसी तक सरकारी धन की अवैध निकासी में लगे हैं. राज्य में फरजी तरीके से डोभा निर्माण एवं पंचायत संचालित विकास योजना से ग्रामीण रू-ब-रू हो रहे हैं. ऐसे में ग्रामसभा खुद को मजबूत करने में लगी है. वहीं दूसरी ओर संविधान के 73वें संशोधन को लेकर सामाजिक मतभेद भी है. इसलिए झारखंड की राजनीति में अक्सर इस नारे को नागरिक संगठनों का एजेंडा बता दिया जाता है, लेकिन इस नारे के साथ जो सांस्कृतिक और राजनीतिक जन प्राधिकार का संबंध है, उसकी उपेक्षा भी संभव नहीं है.
चुनाव आते ही घपले-घोटाले बनेंगे मुद्दे
आने वाले चुनाव में रघुवर सरकार को पंचायत स्तर पर भ्रष्टाचार, घपलों और घोटलों पर झारखंडी जनमानस के आक्रोश और आलोचना का सामना करना पड़ सकता है. सत्ता के दावेदार और सभी प्रमुख गठबंधन वर्तमान समय में पंचायत में हो रहे घपलों पर ध्यान नहीं दे रहे हैं, लेकिन चुनाव के नजदीक आते ही राजनीतिक दलों का इस ओर ध्यान जरूर जायेगा और सरकार की बड़ी नाकामयाबी के रूप में ग्रामीणों को समझाने का काम किया जा सकता है. आज झारखंड के विकास में पंचायती राज में हो रहे घोटाले से गांव के जन-गण बुरी तरह से निराश हैं.
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ऐतिहासिकता को नहीं किया जा सकता नजरअंदाज
दरअसल झारखंड में सत्ता को विकेंद्रित करने और गांव को संस्थागत तरीके से निर्णायक बनाने पर भाजपा भी जोर देती रही है. इसी मकसद से रघुवर सरकार ने योजना बनाओ अभियान की शुरूआत की थी. आज झारखंड के गांवों में इस बात को लेकर भी बहस है कि झारखंड में ऐसे पंचायती राज की जरूरत है, जो वास्तविक सत्ता वंचितों के निर्णय से संचालित हो. आमतौर पर ग्रामीण इलाकों में शोषण का जो ढांचा मौजूद है, उसने पूर्व में पंचायतों का इस्तेमाल अपने को मजबूत बनाने में किया है. इससे न केवल राजनीतिक तौर पर, बल्कि आर्थिक तौर पर भी वे शक्तिशाली हुए हैं, लेकिन गांव के बुनियादी सरोकारों को संबोधित करने में उन्हें सफलता नहीं मिली है. संविधान ने पंचायतों के संदर्भ में जब संशोधन किया, तो अनुसूचित इलाकों के लिए विशेष प्रावधान किये. इसकी ऐतिहासिकता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. झारखंड के जीवंत ग्रामसत्ता के कारकों के कारण खास हालात के निर्माण हुए हैं. इन हालातों के कारण ही वंचित तबकों के बीच राजनीतिक हैसियत पाने की भूख भी पैदा हुयी है और विरासत को बचाने की ओर संवर्धित करने की चेतना भी. ग्रामांचल में मौजूद गणतंत्र की चेतना और उसके महत्व के कारण झारखंड के राजनीतिक फलक पर इस बहस को जगह मिली है कि उन विरासतों की अनदेखी नहीं करनी चाहिये, जिसे लोग अपने सशक्तिकरण का प्रमुख औजार मानते हैं. गांव के संचालन में गांव की ही हिस्सेदारी हो और इसमें भी जेंडर समानता की जरूरत को महत्वपूर्ण तरीके से रेखांकित करने की जरूरत है. गांवसत्ता के नियंत्रण और संचालन में विकास के उन सभी तत्वों को शामिल करने की मांग है, जो जिंदगी की जरूरतों से संबंधित है. शिक्षा व स्वास्थ्य, संस्कृति और बच्चों के विकास के सवाल को लेकर भी गांव में सक्रियता है.
स्वशासन व्यवस्था लागू करने की उठती रही है मांग
कई गांवों में ग्रामसभाओं और सदियों से चल रही परंपरागत जनतांत्रिक संस्थाओं ने कई बेहतर कार्य भी किए हैं. खूंटी, गुमला, लोहरदगा और लातेहार जैसे पिछड़े इलाकों से लड़कियों का जिस बड़े पैमाने पर पलायन होता है, उसे रोकने की दिशा में कदम उठाया गया है. हाल के दिनों में खूंटी जिला की ग्रामसभा ने प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के साथ-साथ परपंरा के उन तत्वों की रक्षा की बात भी प्रमुखता से उठायी है, जिससे झारखंडी अवधारणा का सृजन होता है. हाल के दिनों में खूंटी प्रखंड की कई ग्राम सभाओं में जिसमें-उद्बुरू, जिकीलता, गुटीगंडा, भंडरा, ओडरा, सिलादोन, अनिडीह ग्रामसभा ने आदिवासी परंपरागत व्यव्स्था के तहत आदिवासियों की नेग, दस्तूर, परंपरा, रूढ़ी के अनुसार स्वशासन व्यवस्था लागू करने की मांग की है. साथ ही ग्रामसभा की ओर से सरकारी विद्यालयों के सिलेबस में बदलाव की शुरूआत की गयी है.
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प्रगति के लिए गांवों में शक्ति के राजनीतिककरण की जरूरत
उद्बुरू ग्रामसभा के अनुसार यह कहा गया है कि पांचवी अनुसूची क्षेत्र में समान कानून लागू नहीं होता है. साथ ही जिले के उपायुक्तों की कार्यपालिका शक्तियों का विस्तार राज्यपाल द्वारा नहीं किया गया है. इस वजह से जिला प्रशासन को भी अवैध माना जा रहा है. इस आंदोलन से जुड़े नेता बताते हैं कि झारखंड की बहुआयामी प्रगति के लिए गांवों में इस शक्ति के राजनीतिककरण की जरूरत है. इसी से कई ऐसे सवालों का हल निकाला जा सकता है, जो दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण अब तक पेचीदा बना हुआ है. वन कानूनों को सख्ती से लागू करने और नरेगा जैसी योजनाओं को लागू कराने और उनपर नियंत्रण रखने में इनकी भागीदरी महत्वपूर्ण हो सकती है. साथ ही झारखंड में जिस तरह से बच्चों को लेकर कई सवाल गंभीर हो रहे हैं. शिक्षा और सामाजिक निर्णय प्रक्रिया में उन्हें वंचना का शिकार होना पड़ रहा है. ऐसे आंदोलनों की इसे रोकने में कारगर भूमिका हो सकती है.
बदले जा सकते हैं झारखंड के गांवों के आर्थिक हालात
परंपरागत ग्रामसत्ताओं को बेहतर अवसर देकर झारखंड के गांवों के आर्थिक हालात बदले जा सकते हैं. खासकर बिचैलियों से बचाने में इस तरह के सामाजिक पहल अहम भूमिका निभा सकते हैं. हाट-बाजार में जिस तरह ग्रामीणों को लूटा जाता है और जिस तरह से उनके सांस्कृतिक प्रदूषण का सवाल उभर कर सामने आ रहा है उसमें इन ग्रामीण राजनीतिक प्रक्रियाओं के सहारे भूमिका निभाकर वास्तव में गांवों में गावों का जनतंत्र संभव है. इन आंदोलनों के नेता चुनावों में ग्रामीण निर्णय प्रक्रिया में इस तरह की पहल को महत्वपूर्ण मानते हैं.
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