चंडीगढ़ का कवि दरबार और आर चेतनक्रांति की कविता – मर्दानगी

हाल में, चंडीगढ़ में पंजाब यूनिवर्सिटी में एक कवि सम्मेलन आयोजित किया गया था. पंजाबी में उसे कवि दरबार कहते हैं. यह आयोजन वहां के बड़े सम्माननीय प्रोफेसर केसर सिंह केसर की याद में हर बरस किया जाता है.
डॉ. सुरजीत पातर की अध्यक्षता में हुए इस कवि सम्मेलन में बहुत सारे उम्दा कवि शामिल हुए. हिमाचल से वरिष्ठ कवि दीनू कश्यप की कविताएं इस आक्रामक राष्ट्रवादी हो रहे समय मे एक विश्वसनीय हस्तक्षेप करती हैं. पंजाबी और हिंदी के अनेक कवियों को सुनना एक यादगार अनुभव रहा.
पंजाब की कविता अपने समय, सरोकारों और पाश की विरासत को संभालते हुए आगे बढ़ रही है. इसमें झारखंड से शेखर मल्लिक और दिल्ली से आर चेतनक्रान्ति और नीतिशा खल्खो शामिल हुए थे. चेतनक्रान्ति ने एक ही कविता सुनाई जो मुझे बेहद पसंद की गयी. वो यहां साझा की जा रही है.
कविताएं तो बहुत अच्छी थीं लेकिन पौंटा साहिब, हिमाचल प्रदेश के युवा कवि प्रदीप सैनी की यह पंक्तियां अलग से ध्यान खींचने वाली थी.
” कम ख़तरनाक नहीं होती वह कविता
जिसे एक सुरक्षित कवि लिखता है.”
आर चेतन क्रांति की कविता – मर्दानगी
पहला नियम तो ये था कि औरत रहे औरत,
फिर औरतों को जन्म देने से बचे औरत,
जाने से पहले अक्ल-ए-मर्द ने कहा ये भी,
मर्दों की ऐशगाह में खिदमत करे औरत.
इतनी अदा के साथ जो आए जमीन पर,
कैसे भला वो पांव भी रखे जमीन पर,
बिस्तर पे हक़ उसी का था बिस्तर उसे मिला,
खादिम ही जाके बाद में सोये जमीन पर.
इस तरहा खेल सिर्फ ताकतों का रह गया,
अहसास का होना था, हिकमतों का रह गया,
सबको जो चाहिए था वो मर्दों ने ले लिया,
जो छूट गया सबसे, औरतों का रह गया.
यूं मर्द ने जाना कि है मर्दानगी क्या शै,
छाती की नाप पहनावे का बांकपन क्या है,
बाहों की मछलियों को जब हुल्कारता चला,
पीछे से फूल फेंक के देवों ने कहा जै.
बाद इसके जो भी सांस ले सकता था, मर्द था
घुटनों के बल जो रेंगता था, मर्द था वो भी,
पीछे खड़ा जो पांव मसलता था, मर्द था.
कच्छा पहन के छत पे टहलता था, मर्द था
जो बेहिसाब गालियां बकता था, मर्द था,
बोतल जिसे बिठा के खिलाती थी रात को,
पर औरतों को देख किलकता था, मर्द था.
जो रेप भी कर ले, वो मर्द और जियादा,
फिर कहके बिफर ले, वो मर्द और जियादा,
चलती गली में कूद के दुश्मन की बहन को,
बाहों में जो भर ले वो मर्द और जियादा.
मर्दानगी को थाम के बीमार चल पड़े
बूढ़े-जवान, नाकिसो-लाचार चल पड़े.
मर्दानगी के बांस पे ही टांग के झंडे,
करने वतन की देख-रेख यार चल पड़े..