Opinion

छत्तीसगढ़ के दागी उम्मीदवारों के विज्ञापनों का अध्ययनः दाग ढूंढ़ते रह जाओगे

Sudhir Pal

Ranchi: अखबार में छपने से क्या फर्क पड़ेगा- छत्तीसगढ़ में मतदाता जागरुकता अभियान के दौरान एक दागी उम्मीदवार ने ऐसा ही बयान दिया था. अखबार पढ़ता कौन है? और कितने लोगों को अखबार का विज्ञापन याद रहता है! अति आत्मविश्वास से लबरेज इस प्रत्याशी की टिप्पणी पर हम-आप असहमत हो सकते हैं. उनकी नादानी पर तरस खा सकते हैं या आलोचना कर सकते हैं. लेकिन एक झटके में उनकी बातों को काट देना आसान नहीं है.

छत्तीसगढ़ समेत पांच राज्यों में चल रहे विधान सभा चुनाव में चुनाव आयोग ने पहली बार राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करने के लिए आपराधिक छवि के उम्मीदवारों या उन्हें टिकट देनेवाले राजनीतिक दलों को उनकी पृष्ठभूमि के बारे में अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तीन बार विज्ञापन प्रकाशित करना अनिवार्य बनाया है. ताकि जनता को उनके बारे में पता चल सके.

खबरों के बीच विज्ञापन

छत्तीसगढ़ विधानसभा के चुनाव में दागी उम्मीदवारों ने चुनाव आयोग के निर्देशानुसार अखबारों में अपने दाग के विज्ञापन तो छापे हैं, लेकिन आम लोगों के लिए यह ढूंढ़ो तो जानें जैसी पहेली है. आयोग ने 12 पॉइंट के बोल्ड फॉन्ट में विज्ञापन देने का निर्देश दिया है. हिंदी में 12 पॉइंट का फॉन्ट अखबार के रनिंग फॉन्ट के समकक्ष होता है और सामान्यतः पढ़ते समय हम इसे देख ही नहीं पाते हैं. अम्बिकापुर के अनिल कुमार का मानना है कि विज्ञापन के साथ उम्मीदवार का फ़ोटो होता तो लोग विज्ञापन देख पाते और कुछ नोटिस भी लेते.

कुछ विज्ञापनों को देख कर अंदाज़ लगाना मुश्किल होगा कि ये विज्ञापन हैं या स्टोरी के भीतर का बॉक्स. विज्ञापन और खबर को इतने करीने से सजाया गया है कि अलग से विज्ञापन ढूंढ़ पाना भूंसी के ढेर से सुई ढूंढ़ने जैसा है. मैनेज्ड टेंडर के विज्ञापन भी अखबार में इससे बेहतर ढंग से छपते हैं.

अध्ययन में पाया गया कि ज्यादातर विज्ञापन लेफ्ट साइड वाले पेज पर छापे गये हैं. विज्ञापन के लिहाज़ से ये पेज कम महत्वपूर्ण माने जाते हैं. अखबार इन पृष्ठों का इस्तेमाल सरकारी या कम पैसे वाले विज्ञापनों के लिए करते हैं. सामान्यतः अखबार के दाहिनी ओर के पृष्ठ पर हमारी आंखें सहज होती हैं. विज्ञापनदाता अख़बार के राइट हैंड साइड वाले पेज पर ही विज्ञापन प्रेफर करते हैं.

हर अखबार वाइडली सर्कुलेटेड है

नेशनल इलेक्शन वॉच ने छत्तीसगढ़ के विभिन्न अखबारों में प्रकाशित तीन दर्जन से ज्यादा विज्ञापनों का अध्ययन किया है. अध्ययन में पाया गया कि ज्यादातर विज्ञापन छोटे अखबारों या कम विज्ञापन दरवाले अखबारों में छपे हैं. जैसे वैधानिक जरूरतों को पूरा करने के लिए हम अखबारों में नाम बदलने का शपथ छपवाते हैं बिल्कुल उसी तर्ज पर. आयोग का निर्देश है कि ये विज्ञापन उम्मीदवार के विधान सभा क्षेत्र में सर्वाधिक प्रसारवाले अखबार में छापे जाएं. अखबारी दुनिया में सिर्फ ऑफिस कॉपी छापनेवाला अखबार भी अपने को सर्वाधिक प्रसारवाला घोषित करता है. तकनीकी तौर पर इसे गलत ठहरा पाना मुश्किल है.

अखबारों के सर्कुलेशन को ले कर दो व्यवस्थाएं लागू हैं. रोज़ाना 40 हज़ार कॉपी तक सर्कुलेशन घोषित करनेवाले अखबारों को चार्टेड अकाउंटेंट से सर्टिफिकेट लेने की जरूरत पड़ती है. अखबारों के लिए यह बहुत मुश्किल नहीं है. आरएनआइ को अगर जरूरत महसूस होगी तो इन अखबारों के सर्कुलेशन की ऑडिट होगी. सामान्यतः आरएनआइ की ओर से सर्कुलेशन ऑडिट नहीं होती है. अखबारों के सर्कुलेशन महत्वपूर्ण हैं क्योंकि विज्ञापन की दरें इसी पर ही तय होती हैं.

ज्यादातर बड़े अखबार एबीसी(ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन) से सर्कुलेशन सर्टिफिकेट लेते हैं. एबीसी के सर्टिफिकेट कॉर्पोरेट, डीएवीपी, कमर्शियल विज्ञापन की दरें तय करने का सबसे विश्वसनीय आधार माना जाता है. चुनाव आयोग ने अपने निर्देश में अखबारों के सर्कुलेशन के प्रमाण को लेकर कुछ नहीं कहा है. आयोग का निर्देश है कि अख़बार ‘वाइडली सर्कुलेटेड’ हो. अखबारी दुनिया में ‘वाइडली सर्कुलेटेड’ बहुत ही अस्पष्ट है.

छत्तीसगढ़ या किसी भी राज्य के अखबारों को उठा लें. किसी का टैग लाइन  ‘राज्य का सर्वाधिक बिकने वाला’ है तो कोई अपने को ‘राज्य में सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला’ बताता है. कोई अपने को ‘राज्य का नंबर वन’ बताता है तो कोई ‘विलासपुर का नंबर वन’. यहां तक की जिलों में भी हर अखबार अपने को नंबर वन ही बताते हैं. छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के एक बड़े नेता चुटकी लेते हैं, सब ‘वाएडली सर्कुलेटेड अखबार’ हैं. हम आयोग के निर्देशों का 100 फ़ीसदी अनुपालन कर रहे हैं.

टीवी पर कब आया विज्ञापन

इसमें दो मत नहीं कि राजनीतिक दलों और दागी उम्मीदवारों ने आयोग के निर्देशों के अनुरूप अखबारों में तथा टीवी चैनलों पर विज्ञापन छपवाया और प्रसारित करवाया है. टीवी विज्ञापनों के बारे आम शिकायत रही कि कब विज्ञापन चला पता ही नहीं चला. आयोग ने कम से कम तीन अलग अलग तिथियों पर विज्ञापन प्रसारण की बात की थी. चैनलों में विज्ञापन के मामले में विज्ञापन की बारंबारता और प्राइम या नॉन प्राइम टाइम का उल्लेख आयोग के निर्देशों में नहीं है. नतीजा यह रहा कि ज्यादातर टीवी विज्ञापन नॉन प्राइम टाइम में और महज़ तीन दिनों में तीन बार ही प्रसारित हुए.

सरगुजा संभाग के 5 विधान सभा क्षेत्रों के 525 मतदाताओं से 6 नवम्बर से 18 नवम्बर के बीच पूछे गए सवालों से कई चीजें स्पष्ट हुईं. वोटरों से तीन सवाल पूछे गए थे. 1.सर्वे वाले दिन अखबार में छपे किसी एक विज्ञापन का नाम बताएं? 2.चुनाव आयोग के निर्देशानुसार दागी उम्मीदवारों द्वारा छपवाये गए विज्ञापन को आपने देखा है? 3.उम्मीदवार के दागी होने के बाद भी आप उन्हें वोट देंगे?

पहले सवाल के जवाब में ज्यादातर लोगों ने नियमित छपने वाले डिस्प्ले और बड़े साइज के विज्ञापनों के बारे जानकारी दी. इन विज्ञापनों में ऑटोमोबाइल, मोबाइल, एलईडी टीवी आदि शामिल हैं. 68 फ़ीसदी लोगों ने स्वीकार किया कि उन्हें अखबार में छपे विज्ञापन याद नही हैं. सिर्फ 32 फ़ीसदी लोगों अखबार में छपे एकाध विज्ञापन याद थे. लेकिन ये विज्ञापन वही थे जो अखबारों में नियमित डिस्प्ले होते रहते हैं.

चुनाव आयोग की कोशिश है कि मतदाता सजग हो और उम्मीदवारों के बारे में पूरी जानकारी उसके पास हो. इस चुनाव में उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों द्वारा विज्ञापन के माध्यम से ये जानकारी उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई थी. सर्वे में 92 फीसदी लोगों ने माना कि इस तरह के किसी विज्ञापन पर उनकी नज़र नहीं पड़ी है. केवल 8 फ़ीसदी लोगों ने कहा ‘उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले की धाराएं तो दिखी हैं’.

‘उम्मीदवार के दागी होने के बाद भी आप उन्हें वोट देंगे’ ज्यादातर लोगों की कोशिश इस सवाल को टालने की रही. 44फ़ीसदी लोगों ने कहा अभी सोचा नहीं है. 32 फ़ीसदी लोगों ने इस सवाल के जवाब में हां या ना कुछ भी नहीं कहा. जबकि 11 फ़ीसदी को लगता है कि कमजोर तबके से वास्ता रखने की वजह से उन्हें फंसाया जा रहा है. सिर्फ 13 फीसदी लोगों ने कहा कि वे दागी उम्मीदवारों को वोट नहीं देते हैं.

दागी उम्मीदवारों को सदन में नहीं होना चाहिये, यह बहस के लिए हमेशा महत्वपूर्ण विषय रहा है लेकिन चुनाव के वक़्त भी लोग ऐसा ही सोचते हैं, यह धारणा सही नहीं है. एडीआर आंकड़े बताते हैं कि दागी उम्मीदवारों की चुनाव में जीत की संभाव्यता अच्छे उम्मीदवारों की तुलना में 13 फीसदी ज्यादा है. झारखंड मुक्ति मोर्चा के सुप्रीमो शिबू सोरेन जब अपने निजी सचिव शशि नाथ झा की हत्या के आरोप में जेल गए थे तो लगा था अब इनका कैरियर खत्म हो गया. लेकिन चुनाव में अभियान में लोगों को बताया कि अगड़ी जाति के लोगों की साजिश के शिकार हुए हैं. आदिवासी का आगे बढ़ना लोगों को बर्दाशत नहीं हो रहा है. लोगों ने उनकी दलील पर भरोसा किया और वे सांसद बने. भारत के विभिन्न इलाकों में ऐसे दर्जनों सांसद और विधायक मिलेंगे जो दागी और दबंग होने के बाद भी जन प्रतिनिधि चुने जाते हैं.

सन 2002-03 में एडीआर के पीआइएल पर जब सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव लड़नेवाले उम्मीदवारों को हलफनामा दे कर अपनी आपराधिक, वित्तीय एवं शैक्षणिक पृष्ठभूमि की विवरणी को चुनाव आयोग को देना अनिवार्य बना दिया तो आशा जगी थी कि देर-सबेर इस पर नकेल लगेगी. हमारी समझदारी थी कि मतदाताओं को उम्मीदवारों के बारे जानकारी नहीं होती है इसलिए वे अच्छे और बुरे में फ़र्क नहीं कर पाते थे. अब लोगों को जानकारी होने लगी तो वे सच्चे और अच्छे को अपना प्रतिनिधि चुनेंगे.

चुनाव आयोग को जमा हलफनामा मीडिया के लिए हॉट केक स्टोरी होने लगी. अखबार और चैनल ने अपने पाठकों और दर्शकों तक ये जानकारियां पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. चुनाव आयोग की जानकारियों के आधार पर एडीआर ने अच्छे और सच्चे को चुनने का राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया. चुनाव आयोग भी मतदाताओं को सजग और जानकार बनाने की दिशा में पहल करता गया. महाराष्ट्र में स्थानीय निकायों के चुनाव में तो राज्य निर्वाचन आयोग ने मतदान केंद्रों पर बजाप्ता फ्लेक्स और बैनर टांग कर दागियों की जानकारी मतदाताओं को देने का अभिनव प्रयोग किया. ड़ेढ़ दशक बीत जाने के बाद भी चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवारों में आपराधिक प्रवत्ति के लोगों की संख्या कम होने के बजाय बढ़ ही गयी है.

मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम और तेलंगाना विधान सभा चुनावों में दागियों को चुनाव से बाहर रखने की कोशिश के तहत चुनाव आयोग ने उम्मीदवारों को आपराधिक रिकॉर्ड की जानकारी तीन दिनों तक लगातार विज्ञापन के रूप में अखबारों में प्रकाशित कराने का निर्देश किया है. प्रत्याशियों को यह काम नामांकन वापस लेने की तारीख के बाद और मतदान के 48 घंटे पहले तक करना होगा. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद निर्वाचन आयोग ने इस संबंध में निर्देश जारी किया है.

दागियों से परहेज नहीं

चुनाव आयोग के इस निर्देश के बाद उम्मीद थी कि राजनीतिक दल प्रत्याशियों की घोषणा करने में दागियों से परहेज करेंगे. लेकिन उम्मीवारों की सूची देखकर लगता नहीं है कि इस पर कोई अमल हुआ है. सभी राजनीतिक दलों का ध्यान येन केन प्रकारेण चुनाव जीतने पर है. दागी सियासत की बातें केवल जुबान और बयानों तक सीमित है. लोकतंत्र का दुर्भाग्य है की हम दागी और जाति के भंवर में फंस कर अपना फैसला सुना देते हैं जिसका खामियाजा अंततोगत्वा हमें ही उठाना पड़ता है.

एडीआर और नेशनल इलेक्शन वॉच ने जागरुता अभियान चला कर दागी और भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ सीधी लड़ाई छेड़ने एक अभियान शुरू किया है. अभियान में बताया गया है पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में विभिन्न दलों के दागी उम्मीदवारों को जीतने से रोकने के लिए सड़कों पर उतरे हुए हैं. नुक्कड़ नाटक, रैली, नुक्कड़ सभाओं, मीडिया के माध्यम से जनता को प्रेरित कर रहे हैं कि इस बार वे दागियों को कतई वोट न दें, चाहे वो जिस पार्टी, विचारधारा, जाति या धर्म से ताल्लुक रखते हों.

सवाल यह  है कि जब संसद और विधान सभाओं में दागी होंगे तब स्वच्छ राजनीति का फैसला कैसे होगा. दागी चेहरे तकरीबन सभी पार्टियों में समान रूप से देखे जा सकते हैं. नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म (एडीआर) की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के 33 फीसदी यानी 1580 सांसद-विधायक ऐसे हैं, जिनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं.

राजनीतिक दलों द्वारा अपराधियों को शह देना, जनता द्वारा वोट देकर उन्हें स्वीकृति और सम्मान देना और फिर कानूनी प्रक्रिया की कछुआ चाल, यह सब मिलकर हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था और जनतंत्र के प्रति हमारी निष्ठा, दोनों, को सवालों के घेरे में खड़ा कर देते हैं. चुनाव आयोग लोगों को उम्मीदवारों के बारे जानकारी देने का अभियान तो चला रहा है लेकिन सजग और सचेत मतदाता होने का परिचय तो लोगों को ही देने होंगे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और नेशनल इलेक्शन वॉच के स्टेट को-ऑर्डिनेटर हैं.)

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