Faisal Anurag
तो क्या भारत का लोकतंत्र विचारहीनता का शिकार हो चुका है? सवाल तीखा है. लेकिन पिछले कुछ सालों में जिस तरह के राजनीतिक हालात उभरे हैं, वह इस सवाल की सार्थकता ही साबित कर रहे हैं. भारत का लोकतंत्र उस दौर में जड़ें जमाने में कामयाब हुआ था, जब भारत विभाजन की भयावह त्रासदी से उबर ही रहा था. भारत के लोकतंत्र के विकास की कहानी सामान्य परिधटना नहीं है.
भारत के साथ और बाद में स्वतंत्र हुए देशों में शायद ही कोई और देश ऐसा हो जहां भारत जैसा लांकतंत्र का स्थायित्व रहा है. भारत एक संवैधानिक लोकतंत्र की बड़ी मिसाल है. यूरोप के कुछ देशों और अमेरिका को छोड़ कर इस तरह लोकतांत्रिक स्थायित्व के उदाहरण कम ही हैं.
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भारत का लोकतंत्र उस दौर में परवान चढ़ा जब नेहरू के जमाने में उन्हें चुनौती देने वाला विपक्ष हाशिये था. इमरजेंसी के अपवाद को अगर छोड़ दिया जाये तो लांकतांत्रिक स्थायित्व की गति बरकरार रही है. लेकिन पिछले कुछ समय से यदि एकाधिकारवाद की आहट सुनायी देने लगी.
भारतीय बहुदलीय जनतंत्र विचारों ओर विकल्पों के विभिन्न आयामों के दौर में ही जीवित रहता है. यानी सामाजिक भिन्नताओं को समावेशित करने की प्रक्रिया ही बहुदलीयता के विचार की आजीविका हैं. लेकिन पिछले कुछ समय की राजनीतिक परिघटनाएं बता रही हैं कि भारत के राजनीतिक दलों और खास कर राजनीतिक नेताओं ने अपनी साख को जितना नुकसान पहुंचाया है, उससे बड़ी कोई त्रासदी नहीं हो सकती है.
एक मतदाता के नजरिये से देखा जाये तो उसके वोट की गरिमा का समर्थन करने वाली राजनीति लगातार अवसरों को सीमित करती जा रही है. इसका असर भारत के संवैधानिक प्रावधानों पर भी पड़ रहा है. जिसके हिफाजत की बात तो हर कोई कर रहा है. लेकिन उसके लिए जीवंततता का प्रश्न नहीं किया जा रहा है.
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भारत के लोकतंत्र को किसी बाहरी ताकत से खतरा नहीं है. लेकिन भारत की आंतरिक राजनीतिक परिघटनाओं का सबक यह है कि वह लोकतंत्र के बहुआयामी स्वरूप् को बेहद सीमित अवसरों में तब्दलील करता नजर आ रहा है. लोकतंत्र के निरंतर विस्तार के लिए जहां दुनिया के अनेक देशों की सक्रियता और सजगता साफ नजर आती है, वहीं भारत में यदि इसके सीमित हाने की चर्चा होती है, तो यह सामान्य बात तो नहीं ही है.
इमरजेंसी जब लगी थी तब लोकतंत्र को सीमित कर दिया गया था. आज बिना इमरजेंसी के ही हालात बेहद संजीदा दिखते हैं. लोकतंत्र की हिफाजत का दायित्व तमाम संवैधानिक संस्थाओं के साथ आमलोगों को भी है. लेकिन संवैधानिक संस्थाओं की भूमिका को ले कर ही अब सवाल उठने लगे हैं. इन सवालों का जवाब दिया जाना बेहद जरूरी है.
लोकतंत्र केवल सत्ता हासिल करने और बदलने का ही तंत्र नहीं है. बल्कि राजनीतिक दलों के भीतर भी उसकी अनुगूंज सुनी जानी चाहिये. भारत में कुछेक ही दल है, जिनके भीतर आंतरिक लोकतंत्र है. लेकिन अधिकांश दलों ने इस प्रवृति से किनारा कर लिया है. सत्ता होड़ के दो प्रमुख दलों की आंतरिक संरचना भी बहुत उम्मीद नहीं जगाती है.
गठबंधन की राजनीति भारत के लिए नयी नहीं है. लेकिन भारत के गठबंधन राजनीति की सीमा यह है कि वह किन्हीं विचारों से ओतप्रोत नहीं रहा है. 1967 में कांग्रेस विरोधी गठजोड़ भी विचारों के धरातल पर खरा साबित नहीं हो सकता है. और 1977 का गठबंधन भी किसी सहमना विचारों की प्रवृतियों से नहीं उभरा था. साठ के दशक में कांग्रेस के विरोध का जो स्वर उठा था और जिसने छोटे राजनीतिक दलों को एक फोरम पर खड़ा किया था.
उसकी भी सीमा थी. लेकिन उसके बाद तो साफ दिखता है कि केवल सत्ता हासिल करने के रूप में गठबंधन का सहारा लिया जाता रहा है. इसका खतरा यह हुआ कि भारत की राजनीति में किसी आर्थिक विकल्प के राजनीतिक अवसरों को ही खत्म कर दिया गया. दो अलग अलग दलों के बीच हुए गठबंधन के किसी ठोस आधार की तलाश करना भी संभव नहीं दिखता है.
यही कारण है कि भारत में सरकार तो बदल जाती है, लेकिन आर्थिक विकास की रणनीति में किसी तरह का बदलाव नहीं आता है. इसका बड़ा असर यह हुआ है कि राजनीतिक दलों ने अपनी तमाम संभावनाओं को खत्म कर दिया है. भारत की राजनीति जिस सेकुलर अवधारणा के कारण विभाजित होती रही है. उसे भी महाराष्ट्र के घटनाक्रम ने बेहद विवादास्पद बना दिया है. वैसे एनडीए गठबंधन ने पहले ही सेकुलर अवधारणा के विभाजन की रेखा को खत्म करने का प्रयास किया है.
एनडीए अब तो भारतीय जनता पार्टी के नजरिये का ही प्रतिफलन करता है. वह सीमा खत्म की जा चुकी है. जब कुछ विवादास्पद मामलों पर असहमति का साहस उसके घटक दिखाते थे. इन तमाम प्रवृतियों के कारण गिरी राजनीतिक साख से पैदा हुए विकल्पहीन दौर ने राजनीतिक दलों के प्रति साख को कमजोर किया है. बावजूद उम्मीद की जा सकती है कि दुनिया विकल्पहीन नहीं हो सकती है.
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